पारस नाम का अर्थ होता है—’पारस-मणि’, वह चमत्कारी पत्थर जो लोहे को भी सोना बना दे। लेकिन आज चंद्रपुर जिले में एक ऐसा ही ‘पारस’ सक्रिय है, जो रेत के अवैध खनन से सोना उगल रहा है। सरकारी नियमों को धता बताते हुए, प्रशासन की नाक के नीचे, यह रेत माफिया मशीनों और ट्रकों की भरमार लगाकर नदियों को लूट रहा है। सवाल यह है—क्या प्रशासन और सरकार इस काले धंधे पर अंकुश लगाएगी, या नेताओं की शह पर यह खेल और फलेगा-फूलेगा?
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सरकारी नियमों की धज्जियां उड़ाता रेत का कारोबार
राज्य सरकार ने नदियों से रेत खनन के लिए सख्त नियम बनाए हैं, लेकिन जमीन पर हकीकत कुछ और ही है। जिले के कुछ तहसीलों में पारस और उसके सहयोगी श्याम की मिलीभगत से रेत का अवैध उत्खनन जोरों पर है। यह गिरोह सरकारी अनुमति का आड़ लेकर नदियों की छाती चीर रहा है।
-» जेसीबी, पोकलेन और ट्रकों का अंधाधुंध इस्तेमाल
-» नदियों से निकाली गई रेत का खुले बाजार में धड़ल्ले से बिक्री
-» मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा संरक्षक नेताओं और अधिकारियों की जेब में
सरकार कहती है कि “अवैध खनन पर कड़ी कार्रवाई होगी,” लेकिन जब तक नेताओं की शह पर यह धंधा चल रहा है, तब तक क्या वाकई कोई कार्रवाई हो पाएगी?
नदियों का सूखता जलस्तर: एक पर्यावरणीय संकट
अवैध रेत खनन का सबसे भयावह पहलू यह है कि इससे नदियों का जलस्तर तेजी से घट रहा है। जानकारों का मानना है कि यदि समय रहते इस पर रोक नहीं लगी, तो आने वाले वर्षों में:
-» किसानों को सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलेगा
-» पेयजल संकट गहराएगा
-»नदी का पारिस्थितिकी तंत्र बर्बाद हो जाएगा
लेकिन क्या सरकार और प्रशासन इन चेतावनियों को गंभीरता से लेगा? या फिर “पारस” के काले स्पर्श से यह धंधा सोना बनता रहेगा?
सत्ता के साये में पलता रेत माफिया
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि पारस और उसका गिरोह सीधे तौर पर क्षेत्र के विधायकों और बड़े नेताओं के संरक्षण में काम कर रहा है। मीडिया और प्रशासन के सामने आने वाली खबरें बताती हैं कि:
-» सरकारी आवंटन के नाम पर नदी घाटों पर कब्जा
-» राजनीतिक संरक्षण में खुलेआम अवैध खनन
-» मीडिया और प्रशासन को गुमराह करने की कोशिश
क्या यह सच नहीं कि जब तक सत्ता के गलियारों से इसकी सहमति मिलती रहेगी, तब तक यह धंधा थमने वाला नहीं?
क्या पारस की काली करतूतों पर रोक लगेगी?
पारस आज पारस-मणि नहीं, बल्कि रेत माफिया बन चुका है। नदियों को लूटकर, पर्यावरण को नष्ट करके, और सरकारी नियमों को ताक पर रखकर यह गिरोह मालामाल हो रहा है। सवाल यह है कि क्या प्रशासन और सरकार इस पर अंकुश लगाएगी, या राजनीतिक संरक्षण में यह धंधा और फलता-फूलता रहेगा?
अगर समय रहते इस पर लगाम नहीं लगी, तो आने वाले दिनों में नदियों का सूखना, पानी का संकट और पर्यावरणीय तबाही एक बड़ी समस्या बन जाएगी। क्या हम इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं?