चंद्रपुर जिले की भारतीय जनता पार्टी (BJP) इकाई में लगभग तीन दशकों के बाद पहली बार ऐसी तीव्र आंतरिक खींचतान देखने को मिल रही है, जो अब पर्दे के पीछे न रहकर खुलकर सार्वजनिक मंचों पर सामने आ चुकी है। संगठनात्मक चुनावों के बहाने शुरू हुई यह खेमेबाज़ी अब महज़ पदों की लड़ाई न रहकर राजनीतिक वर्चस्व की खुली जंग में तब्दील हो चुकी है।
संगठनात्मक औपचारिकता या राजनीतिक रणनीति?
प्रदेश नेतृत्व द्वारा ग्रामीण और महानगर जिला अध्यक्ष पदों के लिए अभिप्राय (मत) आमंत्रित करना सामान्य प्रक्रिया रही है। लेकिन इस बार यह प्रक्रिया उस समय असाधारण बन गई, जब वर्तमान और पूर्व विधायकों ने इसमें खुलकर भागीदारी की। गुटों ने अपने-अपने वफादार कार्यकर्ताओं को समर्थन देकर उन्हें आगे बढ़ाने की योजना बनाई, जिससे यह प्रक्रिया संगठन से अधिक सत्ता समीकरणों की परीक्षा बन गई।
कौन किसके साथ? ग्रामीण और महानगर इकाई: मुनगंटीवार बनाम जोरगेवार – शक्ति परीक्षण की घड़ी
महानगर अध्यक्ष पद की दौड़ में वर्तमान अध्यक्ष राहुल पावडे विधायक सुधीर मुनगंटीवार के करीबी माने जाते हैं। उनके सामने डॉ. मंगेश गुलवाडे, सुभाष कासनगोट्टवार और दशरथसिंग ठाकुर जैसे नाम हैं। डॉ. गुलवाडे द्वारा विधायक किशोर जोरगेवार से समर्थन माँगना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि गुटीय संतुलन अब खुलकर चुनौती देने की दिशा में बढ़ रहा है। मुनगंटीवार गुट की समझाइश के बावजूद डॉ. गुलवाडे का डटे रहना इस बात को रेखांकित करता है कि संगठन के भीतर असंतोष अब गहराता जा रहा है।
ग्रामीण जिला अध्यक्ष पद को लेकर भी मुकाबला कम दिलचस्प नहीं है। वर्तमान अध्यक्ष हरीश शर्मा के सामने नामदेव डाहुले, कृष्णा सहारे और विवेक बोढे जैसे नाम सामने आए हैं। डाहुले को मुनगंटीवार विरोधी खेमे का समर्थन प्राप्त है, जिससे यह लड़ाई गुटीय ताकत के प्रदर्शन में बदल गई है।
पूर्व विधायक: फिर से सक्रिय रणनीतिकार
सबसे रोचक पहलू यह है कि लंबे समय से राजनीतिक पृष्ठभूमि में रहे पूर्व विधायक नाना शामकुले और पूर्व मंत्री शोभा फडणवीस ने भी इस अभिप्राय प्रक्रिया में अपनी भूमिका निभाई। यह दर्शाता है कि पूर्व विधायक अब पुनः सक्रिय होकर संगठन में अपनी प्रासंगिकता और गुटीय दबदबा पुनर्स्थापित करना चाहते हैं।
गुटबाज़ी बनाम परिपक्वता
जिस प्रकार वर्तमान विधायक सुधीर मुनगंटीवार, बंटी भांगडिया, किशोर जोरगेवार, करण देवतले और देवराव भोंगले जैसे नेता भी प्रत्यक्ष रूप से इस प्रक्रिया में शामिल हुए हैं, वह यह साबित करता है कि यह संगठनात्मक चुनाव अब राजनीतिक प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका है। पार्टी के भीतर राजनीतिक परिपक्वता की अपेक्षा अब गुटीय वफादारी अधिक प्रभावी होती दिख रही है।
इस पूरे घटनाक्रम से यह साफ झलकता है कि चंद्रपुर भाजपा अब एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। संगठनात्मक चुनाव अब केवल प्रशासनिक ढाँचे के निर्माण की प्रक्रिया नहीं रहे, बल्कि यह पार्टी के भविष्य के नेतृत्व और दिशा तय करने वाले निर्णयों का मंच बन चुके हैं। आने वाले दिनों में इन पदों की घोषणा के साथ यह तय होगा कि कौन-सा गुट प्रभावी होता है और भाजपा की दिशा किस ओर मुड़ती है।
सवाल यह है: क्या गुटीय राजनीति पार्टी को मजबूत करेगी या कमजोर? चंद्रपुर भाजपा का यह संकट दरअसल आधुनिक राजनीति की उस बड़ी समस्या का प्रतिबिंब है, जहाँ संगठन से ज्यादा व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ हावी होती जा रही हैं। अगर यह गुटीय खींचतान यूँ ही बढ़ती रही, तो वह न केवल संगठन की जड़ें कमजोर कर सकती है, बल्कि आगामी चुनावों में पार्टी की संभावनाओं को भी प्रभावित कर सकती है।
