विदर्भ की औद्योगिक राजधानी चंद्रपुर, जो कोयला, सीमेंट और अन्य उद्योगों के लिए विख्यात है, आज एक गहरे सामाजिक संकट का सामना कर रही है। यह संकट किसी आर्थिक मंदी या प्राकृतिक आपदा का नहीं, बल्कि पत्रकारिता के पवित्र पेशे को कलंकित करने वाले तथाकथित “विशेष प्रतिनिधियों” की करतूतों का है।
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बीते कुछ समय से शहर में पत्रकारिता की आड़ में सक्रिय छुटभैये तत्वों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। यह वह वर्ग है जिसने पत्रकारिता को समाजसेवा नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ और उगाही का औजार बना लिया है। इनका मुख्य उद्देश्य न तो सच्चाई उजागर करना है और न ही जनहित में लिखना—इनका एकमात्र निशाना है “उगाही”।
इनमें से एक विशेष प्रतिनिधि की गतिविधियाँ विशेष रूप से चर्चा में हैं। यह व्यक्ति उद्योगों—विशेषकर कोयला और सीमेंट कंपनियों—के विरुद्ध झूठे आरोपों और मनगढ़ंत रिपोर्टों के माध्यम से पहले माहौल बिगाड़ता है, फिर उन्हीं कंपनियों पर दबाव बनाकर अपनी शर्तें मनवाने की कोशिश करता है। यदि कंपनियाँ सहयोग नहीं करतीं, तो उसके कथित “RTI विशेषज्ञों” के माध्यम से सूचना अधिकार कानून का दुरुपयोग करते हुए शिकंजा कसने की कोशिश की जाती है।
चौंकाने वाली बात यह है कि इस व्यक्ति का असली धंधा खबरें छापना नहीं, बल्कि कंपनियों में अपने मित्रों की मशीनें और सेवाएँ जबरन थोपना है। इसके लिए पहले नकारात्मक प्रचार कर डर पैदा किया जाता है और फिर समाधान के नाम पर अपनी शर्तें रखी जाती हैं। परिणामस्वरूप, हर महीने मोटी रकम वसूलने का खेल चलता है।
इतना ही नहीं, जिले में चल रहे अवैध व्यवसायों से इसकी साठगांठ भी किसी से छिपी नहीं है। प्रशासनिक अधिकारियों पर पहले शिकायतें, फिर दबाव, और अंत में झूठी खबरों से बदनाम करने की रणनीति इसका स्थापित तरीका बन गया है।
अब सवाल उठता है—क्या जिस अखबार में यह विशेष प्रतिनिधि कार्यरत है, उसके संपादक और प्रबंधन को इन हरकतों की जानकारी नहीं?
क्या वे जानबूझकर इन गतिविधियों की अनदेखी कर रहे हैं या वे स्वयं इस खेल के हिस्सेदार हैं? जब विशेष प्रतिनिधि को ठीक से लेखन भी नहीं आता, तब भी उसे क्यों प्रतिनिधित्व सौंपा गया?
इन गतिविधियों का सबसे बड़ा नुकसान उस अखबार की छवि और पत्रकारिता की साख को हो रहा है, जो वर्षों की मेहनत से बनी थी। दुर्भाग्यवश, अब पत्रकारिता शब्द सुनते ही आमजन के मन में संदेह और अविश्वास का भाव पैदा हो रहा है।
जरूरत है तत्काल हस्तक्षेप की।
प्रशासन, मीडिया प्रबंधन और पत्रकार संगठनों को एकजुट होकर इस “काली पत्रकारिता” के विरुद्ध सख्त कदम उठाने होंगे। पत्रकारिता का अर्थ सिर्फ कलम चलाना नहीं, बल्कि ईमानदारी और नैतिकता से समाज का मार्गदर्शन करना होता है। यदि इस दिशा में कठोर कार्रवाई नहीं हुई, तो आने वाला समय पत्रकारिता के लिए बेहद निराशाजनक हो सकता है।