घुग्घुस नगरपरिषद चुनाव: राजनीतिक शतरंज की बिसात बिछी, महायुद्ध तय!
Local body elections: मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए ऐतिहासिक निर्णय ने राज्य की स्थानिक स्वराज्य संस्थाओं के चुनाव को हरी झंडी दिखा दी है। और इस फैसले की आंच सीधे जिलों की राजनीतिक फिजा में महसूस की जा रही है—खासतौर पर औद्योगिक नगरी घुग्घुस में, जहां राजनीतिक हलचलों की रफ्तार अचानक तेज हो गई है। यहां चुनावी शतरंज की बिसात बिछ चुकी है और सभी गोटियां अपने-अपने मोर्चे संभाल रही हैं। एक तरफ महायुति है, दूसरी ओर महाविकास अघाड़ी, और दोनों के मध्य शक्ति प्रदर्शन की होड़ शुरू हो गई है।
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चार साल की प्रतीक्षा, अब चुनावी बिगुल
घुग्घुस को ग्रामपंचायत से नगरपरिषद का दर्जा दिसंबर 2020 में मिला था, जब राज्य में महाविकास अघाड़ी की सरकार थी। यह दर्जा अनेक आंदोलनों और संघर्षों की परिणति था। लेकिन इस राजनीतिक मान्यता के बाद भी, 2020 से 2025 तक कोई भी चुनाव नहीं हो पाया। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने रास्ता साफ किया है, तो हर गली और हर मोड़ पर “कौन बनेगा नगराध्यक्ष?” की चर्चा तेज हो गई है।
नगर प्रशासन में अस्थिरता और चुनौतियां
नगरपरिषद बनने के बाद शहर ने चार मुख्य अधिकारियों को देखा—और यह आंकड़ा ही खुद दर्शाता है कि प्रशासनिक स्थिरता की कितनी कमी रही। पहली महिला मुख्याधिकारी अयिशा जूही राजनीतिक दबाव के चलते एक साल में ही स्थानांतरित हो गईं। सूर्यकांत पिदुरकर के कार्यकाल में भूस्खलन की भयावह घटना ने शहर को झकझोर दिया और 161 परिवारों को प्रभावित कर दिया। मुआवजे को लेकर तनातनी बढ़ी, और वह भी जल्द स्थानांतरित हो गए। फिर जितेंद्र गदेवार और नीलेश राजनकर ने जिम्मेदारी संभाली, परंतु बिना निर्वाचित प्रतिनिधित्व के नगर की विकास गति बाधित ही रही।
राजनीतिक समीकरण: कांग्रेस बनाम भाजपा, गुरुजी पर टिकी निगाहें
अब शहर 11 वार्डों में बंट चुका है, और हर वार्ड से दो उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरेंगे। यानी कुल 22 नगरसेवक चुने जाएंगे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह मुकाबला अब सीधा कांग्रेस और भाजपा के बीच होने जा रहा है। कांग्रेस की परंपरागत मजबूत पकड़ रही है—चाहे वह विधानसभा हो या लोकसभा चुनाव, यहां भाजपा को हमेशा कांटे की टक्कर मिली है। लेकिन इस बार माहौल थोड़ा अलग है।
भाजपा के अंदरुनी संघर्ष अब सतह पर हैं। मुंगंटीवार और जोरगेवार के बीच चला आ रहा शीतयुद्ध, अब जिले के अध्यक्ष पद से लेकर शहर अध्यक्ष तक की खींचतान में बदल गया है। वहीं, शहर के भीतर सेवाकेंद्र बनाम जोरगेवार खेमा—यानी सीनियर और जूनियर नेताओं के बीच की रार— शहर अध्यक्ष की दावेदारी को लेकर और भी पेचीदा बना रही है।
और इन सबके बीच एक रहस्यमयी नाम उभर कर आया है—‘गुरुजी’। सूत्रों की मानें तो यहां के ‘दादा’ अब राजुरा के ‘मामा’ बनने के बाद से ‘गुरुजी’ का रुख जिस दिशा में हुआ है, उससे राजनीतिक नजूमियों की भविष्यवाणी और भी दिलचस्प हो गई है। कहा जा रहा है कि गुरुजी अपने राजनीतिक गुरु के छत्रछाया में बल्कि वे राजुरा विधानसभा क्षेत्र के चार तहसीलों में से एक तहसील से जिला परिषद सदस्य बनने की तैयारी भी कर रहे हैं।
घुग्घुस की सियासत: शुद्ध राजनीति या व्यक्तिगत पकड़?
यह चुनाव केवल विकास, सड़कों और नालियों तक सीमित नहीं है—यह शक्ति, पकड़ और भविष्य की रणनीति से जुड़ा हुआ है। घुग्घुस अब एक उभरती हुई नगरपालिका नहीं, बल्कि राजनीतिक बिसात का अहम मोहरा बन चुकी है। यहां नगराध्यक्ष की कुर्सी, विधानसभा और लोकसभा के समीकरणों को भी प्रभावित कर सकती है।
अब देखना यह होगा कि क्या जनता फिर कांग्रेस पर विश्वास जताएगी, या भाजपा इस बार नगरसेवकों के सहारे नगराध्यक्ष की कुर्सी तक पहुंचेगी? और क्या ‘गुरुजी’ वाकई नगर राजनीति में नई दिशा तय करेंगे, या राजुरा क्षेत्र मे अपना राजनीतिक भविष्य खोजेंगे या यह नाम केवल अटकलों तक सीमित रह जाएगा?
घुग्घुस चुनाव की पटकथा लिखी जा चुकी है—अब बस परदा उठना बाकी है।