चंद्रपुर के रामबाग मैदान में प्रस्तावित जिला परिषद (जिप) इमारत के निर्माण को लेकर गुरुवार एक बड़ा जनआंदोलन सामने आया। ‘रामबाग मैदान बचाव संघर्ष समिति’ के आह्वान पर गुरुवार सुबह सैकड़ों नागरिक, खिलाड़ी, पुलिस और सेना भर्ती की तैयारी कर रहे युवक एकजुट हुए और ठेकेदार द्वारा खोदे गए गड्ढों में प्रतीकात्मक रूप से मिट्टी भरकर ‘माटी का सत्याग्रह’ किया।
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“नहीं मतलब नहीं” – गूंजा एक स्वर
प्रदर्शनकारियों ने संकल्प लिया कि रामबाग मैदान का प्राकृतिक सौंदर्य किसी भी हाल में नष्ट नहीं होने दिया जाएगा और इस ऐतिहासिक खेल मैदान पर कंक्रीट का जंगल नहीं बनने देंगे। लोगों ने ‘नहीं मतलब नहीं’ के नारे लगाते हुए जिला परिषद की प्रस्तावित इमारत को अन्यत्र स्थानांतरित करने की मांग दोहराई।
चार दशकों से सांस ले रहा है यह मैदान
स्थानीय नागरिकों के अनुसार, रामबाग मैदान पिछले चार-पांच दशकों से सुबह-शाम की सैर, खेलकूद और शारीरिक अभ्यास के लिए शहर का प्रमुख केंद्र रहा है। मैदान में मौजूद सिंधी और ताड़ के वृक्ष इसकी हरियाली और शांति को और बढ़ाते हैं। इस मैदान से लोगों की भावनाएं गहराई से जुड़ी हुई हैं।
ठेकेदार की खुदाई ने भड़काया जनाक्रोश
जैसे ही ठेकेदार ने मैदान पर खुदाई शुरू की, नागरिकों में आक्रोश फूट पड़ा। रामबाग मैदान बचाव संघर्ष समिति ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक जिला परिषद की इमारत को किसी वैकल्पिक स्थान पर नहीं ले जाया जाता, विरोध जारी रहेगा।
प्रशासन से हुई बैठक बेनतीजा
आज सुबह 11 बजे सार्वजनिक बांधकाम विभाग क्रमांक 2 के कार्यकारी अभियंता मुकेश टांगळे के कार्यालय में एक बैठक हुई, जिसमें समिति के प्रमुख सदस्य पप्पू देशमुख, भरत गुप्ता सहित कई लोग उपस्थित रहे। लेकिन बैठक में कोई ठोस समाधान नहीं निकल सका।
जिला परिषद प्रशासन पर भ्रामक जानकारी देने का आरोप
समिति के अनुसार, शहर में जिला परिषद की नई इमारत के लिए पर्याप्त वैकल्पिक स्थल मौजूद हैं, फिर भी प्रशासन जानबूझकर इस प्राकृतिक खेल मैदान को निशाना बना रहा है। पप्पू देशमुख ने आरोप लगाया कि “जिप प्रशासन जनता को गुमराह कर रहा है और पर्यावरण विरोधी निर्णय ले रहा है।”
आज खुलेंगे राज!
समिति ने एलान किया है कि वे आज यानी 9 मई को ठोस दस्तावेजों के साथ जिला परिषद प्रशासन की सच्चाई जनता के सामने उजागर करेंगे। प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि रामबाग मैदान को बचाने के लिए आंदोलन अब निर्णायक मोड़ पर है।
रामबाग मैदान को लेकर शुरू हुआ यह संघर्ष अब केवल एक मैदान की लड़ाई नहीं, बल्कि पर्यावरण, नागरिक अधिकारों और स्थानीय पहचान की रक्षा का प्रतीक बन चुका है। यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रशासन जनभावनाओं का सम्मान करता है या विकास की आड़ में हरे भरे मैदान का अस्तित्व मिटा देता है।