बेटे की आत्महत्या के बाद भी हिम्मत न हारने वाले किसान को सिस्टम ने फिर किया निराश
चंद्रपुर जिले के सीमावर्ती गांव 🔍तारसा बुज में रहने वाले गरीब किसान अरुण फरकडे का सपना था — अपनी चार एकड़ की जमीन को सिंचाई के दायरे में लाकर बेटे के भविष्य को संवारना। लेकिन 🔍सरकार के बिजली विभाग, 🔍महावितरण, ने ऐसा झटका दिया कि अरुण जैसे हजारों किसानों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। किसान ने नियमों का पालन करते हुए ₹7600 की डिमांड फीस भरी, आवश्यक दस्तावेज और मीटर का सामान भी खरीदा। लेकिन साल भर बीतने के बावजूद न बिजली मिली, न मीटर लगा। जवाब मांगने पर अफसरों ने जो सलाह दी, उसने सबको चौंका दिया —
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> “नदी में सोलर पैनल लगाओ और वहीं से बिजली लो।”
टूटा परिवार, लेकिन न टूटी उम्मीद
इसी दौरान अरुण फरकडे के बड़े बेटे ने आत्महत्या कर ली। पारिवारिक टूटन और ग़रीबी के बीच उम्मीद की आख़िरी किरण था खेती का सपना। उन्होंने अपना ग़म पीकर दोबारा खेत की ओर रुख किया — इस बार छोटे बेटे के भविष्य के लिए। सालभर चक्कर काटने के बाद जब उन्होंने फिर विभाग से जवाब मांगा, तो कहा गया कि अब पारंपरिक कृषि मीटर नहीं दिए जाते। साथ ही यह भी कहा गया कि “नदी में सोलर लगाकर वही से बिजली खींच लीजिए।”
किसान की विवशता — नदी में सोलर कैसे लगाएं?
नदी के बहते पानी में सोलर पैनल लगाना न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि तकनीकी और सुरक्षा दोनों ही दृष्टियों से असंभव है। इस सलाह ने अरुण फरकडे को और गहरे असमंजस में डाल दिया है।
राजनीतिक दरवाज़े भी खटखटाए, लेकिन राहत नहीं
फरकडे ने राजुरा के विधायक 🔍देवराव भोंगले और पूर्व मंत्री 🔍सुधीर मुनगंटीवार से भी गुहार लगाई, लेकिन उनकी मदद भी कागजों से आगे नहीं बढ़ सकी।
बिजली विभाग का स्पष्टीकरण
🔍गोंडपिपरी के उपकार्यकारी अभियंता रूपेश मेश्राम का बयान: > “अब परंपरागत कृषि मीटर नहीं दिए जा रहे हैं। नदी में सोलर लगाने की सलाह किसने दी, यह हमें नहीं पता। लेकिन किसान द्वारा भरी गई डिमांड राशि उन्हें वापस दिलाने का प्रयास किया जाएगा।”
क्या यह किसान विरोधी नीतियों की एक और मिसाल नहीं?
यदि मीटर देने का नियम बदल चुका था, तो पहले ही ₹7600 की फीस क्यों ली गई?
नदी में सोलर लगाना न तो नीति में है, न व्यवहारिक। फिर ऐसी सलाह क्यों दी गई?
अरुण फरकडे की कहानी केवल एक किसान की नहीं, बल्कि उस पूरे सिस्टम का आईना है, जो आज भी किसानों को भरोसे की जगह भ्रम, सहूलियत की जगह सुझाव, और न्याय की जगह जवाबदारी से बचाव देता है।
क्या अब भी कोई सुनेगा उस किसान की आवाज़, जो बेटे की लाश के ऊपर से गुजरकर खेत में उम्मीद बो रहा है?