“एक सप्ताह… छह लाशें… तीन एकसाथ निगल गया बाघ!”
विदर्भ के सघन जंगलों में तेंदूपत्ता संकलन अब केवल जीविका का साधन नहीं रहा, यह ग्रामीणों और आदिवासियों के लिए रोजाना मौत से मुकाबला करने का जरिया बन चुका है। बीड़ी उद्योग के लिए आवश्यक माने जाने वाले तेंदू पत्तों को ‘हरा सोना’ कहा जाता है, लेकिन अब यही हरा सोना खून से लाल हो रहा है।
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खौफनाक आंकड़े: एक हफ्ते में छह महिलाएं बनीं बाघ का शिकार
हर साल अप्रैल से जून के बीच तेंदूपत्ता संकलन का सीजन चलता है। इस दौरान हजारों ग्रामीण व आदिवासी महिलाएं-पुरुष रोजाना जंगलों की ओर रूख करते हैं। मगर इस बार हालात सामान्य नहीं हैं। चंद्रपुर जिले मे केवल एक सप्ताह में बाघ के हमले में 6 महिलाओं की दर्दनाक मौत हो चुकी है, जिनमें तीन महिलाएं तो एक ही समय पर बाघ का शिकार बन गईं। यह त्रासदी न सिर्फ इलाके में मातम ला चुकी है, बल्कि वन विभाग और प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी गंभीर सवाल खड़े कर रही है।
वन्य जीवों के साथ संघर्ष अब युद्ध की कगार पर
ग्रामीणों और वन्य प्राणियों के बीच टकराव की घटनाएं अब सामान्य नहीं रहीं। बाघों और तेंदुओं द्वारा लगातार हो रहे हमलों से साफ है कि जंगलों में खाद्य की कमी के कारण हिंसक हमले बढ़ते जा रहे हैं। ग्रामीण समुदाय के लोग आरोप लगा रहे हैं कि वन विभाग न तो कोई ठोस निगरानी व्यवस्था कर रहा है और न ही पीड़ित परिवारों को समय पर सहायता मिल रही है। इस घोर प्रशासनिक उदासीनता ने वन-मानव संघर्ष को भयावह बना दिया है।
फिर भी नहीं रुकते कदम जंगल की ओर… क्यों?
ऐसे जानलेवा हालात के बावजूद ग्रामीण तेंदूपत्ता संकलन के लिए जंगल में प्रवेश करना नहीं छोड़ते। वजह साफ है — यह उनका एकमात्र टिकाऊ आय स्रोत है। प्रति बोरा तेंदू पत्ता (जिसमें लगभग 50,000 पत्ते होते हैं) की कीमत ₹3,000 से अधिक होती है। यही आर्थिक मजबूरी उन्हें जोखिम उठाने पर मजबूर कर रही है।
बाजार से जंगल तक: करोड़ों का कारोबार, लेकिन सुरक्षा शून्य
तेंदूपत्ता संकलन एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया के तहत होता है। ग्राम पंचायतें पेसा कानून के अंतर्गत बोली प्रक्रिया आयोजित करती हैं। बड़े व्यापारी इसे खरीदकर अन्य राज्यों के बीड़ी उद्योगों को बेचते हैं। लेकिन इतने बड़े लेन-देन के बावजूद संकलनकर्ताओं की सुरक्षा व्यवस्था नगण्य है। ना सीसीटीवी, ना गश्त, ना ही आपातकालीन बचाव दल।
प्रशासन का मौन: आदिवासियों के जीवन का मूल्य ही नहीं?
यह सवाल अब सीधे प्रशासन और नीति-निर्माताओं से पूछा जा रहा है। जब हर वर्ष तेंदूपत्ता संकलन के दौरान जानें जाती हैं, तो अब तक कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं निकाला गया? क्यों नहीं बाघों के मूवमेंट को ट्रैक करने के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हो रहा? क्यों नहीं संकलन के दौरान गश्ती दल तैनात किए जाते?
अब और खून नहीं! — सुरक्षा हो प्राथमिकता
तेंदूपत्ता का हरा सोना ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्तंभ है, लेकिन इसे इकट्ठा करने वालों की जान की कीमत पर नहीं। अब वक्त आ गया है कि राज्य सरकार, वन विभाग और पंचायतें मिलकर समन्वित योजना बनाएं:
तेंदूपत्ता संकलन स्थलों पर बाघों की मूवमेंट मॉनिटरिंग
ग्रामीणों को GPS ट्रैकिंग डिवाइस, अलार्म और गश्ती सुरक्षा
पीड़ित परिवारों को तत्काल मुआवजा और पुनर्वास योजना
अगर इन सवालों को अब भी नजरअंदाज किया गया, तो अगली तेंदूपत्ता सीजन में आंकड़े और भी भयावह हो सकते हैं। तब सवाल ये नहीं रहेगा कि कितने पत्ते संकलित हुए, बल्कि ये होगा — और कितनी लाशें गिरेंगी ‘हरे सोने’ की तलाश में?