चंद्रपुर जिले के गोंडपीपरी तहसील अंतर्गत आनेवाले धाबा गांव में एक अजीबोगरीब फैसले को लेकर ज़ोरदार चर्चा और विवाद छिड़ गया है। यहां श्मशान भूमि से सटी ज़मीन पर 1.5 करोड़ रुपये की लागत से भव्य वाचनालय का निर्माण किया जा रहा है। इसका भूमिपूजन हाल ही में भाजपा विधायक देवराव भोंगले के हाथों बड़े धूमधाम से किया गया। लेकिन जैसे ही यह खबर गांव में फैली, एक नई बहस शुरू हो गई – क्या श्मशान के बगल में बैठकर छात्र ज्ञान प्राप्त कर पाएंगे?
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श्मशान के पास छात्र, क्या पढ़ाई होगी असरदार?
एक ओर जहां श्मशान में अंतिम संस्कार चलते रहेंगे, वहीं दूसरी ओर कुछ ही कदमों की दूरी पर छात्र किताबों में ज्ञान ढूंढेंगे – यह विरोधाभास अब गांव में चर्चा का केंद्र बन चुका है। ग्रामीणों का मानना है कि श्मशान जैसे गंभीर और मनोवैज्ञानिक रूप से भय उत्पन्न करने वाले स्थान के पास छात्रों को पढ़ने भेजना अव्यवहारिक और अमानवीय है।
क्यों उठे सवाल?
धाबा गांव में पहले से ही दो वाचनालय मौजूद हैं – एक श्री संत परमहंस कोंडय्या महाराज देवस्थान में स्थित है, जहां किताबें तो हैं, लेकिन पाठक नहीं। दूसरा वाचनालय बेघर परिसर में बना है, मगर वहां एक भी पुस्तक नहीं है।
ऐसे में अब तीसरे वाचनालय का निर्माण – वो भी श्मशान के पास – प्रशासनिक योजना की विफलता का प्रतीक माना जा रहा है।
परिसर की स्थिति चिंताजनक
वाचनालय जिस स्थान पर बनने वाला है, वहां आसपास घना जंगल, बहता हुआ नाला, झाड़-झंखाड़ और जंगली जानवरों की आवाजाही आम बात है। ताड़ के पेड़ों की भरमार और पास में ताड़ी की दुकान ने इसे और भी अधिक अनुपयुक्त बना दिया है। छात्रों को वहां पढ़ने भेजना, सिर्फ शिक्षा नहीं बल्कि सुरक्षा पर भी सवाल खड़े करता है।
विधायक की सफाई – ग्रामपंचायत की गलती
विवाद गहराता देख जब विधायक देवराव भोंगले से संपर्क किया गया, तो उन्होंने कहा –
> “21वीं सदी में भूत-प्रेत या अंधविश्वास की बात नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह सही है कि यह जगह गांव से दूर है। यह ज़मीन ग्रामपंचायत ने चुनी है, पर हम जल्द ही इस ज़मीन को बदलने पर विचार कर रहे हैं।”
विरोधियों का तंज – ‘वाचनालय नहीं, मज़ाक बन रहा है’
विरोधी दलों और कुछ स्थानीय बुद्धिजीवियों ने इस फैसले को ‘तथाकथित विकास का मज़ाक’ बताया है। उनका कहना है कि खनिज विकास निधि जैसी करोड़ों की योजनाओं का उपयोग सही ढंग से होना चाहिए। पहले से मौजूद दो अधूरे वाचनालयों की स्थिति सुधारने की बजाय तीसरा बनाना – और वो भी श्मशान के पास – आंख मूंदकर पैसा उड़ाने जैसा है।
यह मामला सिर्फ श्मशान और वाचनालय की भौगोलिक निकटता का नहीं, बल्कि प्रशासनिक सोच, युवाओं की मानसिक स्थिति, संसाधनों की बर्बादी और राजनीतिक जवाबदेही से जुड़ा हुआ है। सवाल यह नहीं कि छात्र भूतों से डरेंगे या नहीं, बल्कि यह है कि क्या इस तरह की योजनाएं वास्तव में ‘विकास’ का प्रतीक हैं या सिर्फ कागज़ी घोड़े दौड़ाने का जरिया?