चंद्रपुर पुलिस विभाग में तबादलों की लहर ने बढ़ाया बवाल: 13 दिन में बदले फैसले पर उठे पारदर्शिता पर सवाल
चंद्रपुर जिला पुलिस अधीक्षक (एसपी) मुम्मका सुदर्शन द्वारा चंद्रपुर पुलिस विभाग में पिछले कुछ हफ्तों में किए गए तबादलों ने विभाग में हड़कंप मचा दिया है। 21 जून को हुए व्यापक तबादलों के बाद महज 13 दिन के भीतर ही पांच पुलिस अधिकारियों के पुनः तबादले ने पारदर्शिता और नियोजन पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
इस तबादला श्रृंखला में महिला अधिकारियों को भी बार-बार स्थानांतरित किया गया है, जिससे विभागीय नीतियों की संवेदनशीलता पर भी उंगली उठ रही है।
तबादलों की घुमती गाड़ी – कौन कहां गया और फिर वापस क्यों आया?
- पुलिस निरीक्षक विजय राठोड को पहले सिंदेवाही से जिवती भेजा गया, लेकिन कुछ ही दिनों में पुनः मूल पदस्थापन कर दी गई।
- एपीआई संगीता हेलोंडे को तलोधी से वरोरा, फिर गड़चांदुर भेजा गया।
- एपीआई योगेश पाटील को घुग्घुस से हटाकर नक्सल सेल, आरसीपी व क्युआरटी का प्रभारी बनाया गया, परंतु कुछ ही दिनों में फिर से घुग्घुस थाने में लौटा दिया गया।
- पीएसआई संदीप बच्छीरे को चंद्रपुर शहर से जिवती भेजा गया था, लेकिन अब उन्हें आरसीपी का प्रभारी बना दिया गया, साथ ही नक्सल और क्युआरटी का अतिरिक्त भार भी सौंपा गया।
- पीएसआई सोनाली आगलावे को वरोरा से सिंदेवाही भेजा गया था, अब उन्हें सावली पोस्टिंग दी गई है।
प्रशासनिक कारण या राजनीतिक दबाव?
3 जुलाई को जारी नए तबादला आदेश में 14 अधिकारियों को इधर-उधर किया गया। पुलिस विभाग में लगातार हो रहे फेरबदल से यह चर्चा गरम है कि तबादलों में प्रशासनिक कारणों की आड़ में “प्रभावशाली हस्तक्षेप” तो नहीं?
एसपी छुट्टियों पर, तबादले चर्चा में
विशेष बात यह है कि पिछले तबादलों के तुरंत बाद एसपी सुदर्शन अवकाश पर चले गए थे, जिससे विभाग में पारदर्शिता की बहस और तेज हो गई थी। अब जब वे लौटे, तो फिर कुछ तबादले कर दिए गए हैं, जिससे यह सवाल और गहरा गया है कि तबादलों में पूर्व नियोजन था या संकट प्रबंधन?
पुलिस विभाग जैसी संवेदनशील संस्था में यदि 13 दिनों में ही तबादले वापस लिए जाएं, तो यह कहीं न कहीं विभाग की नीतिगत विफलता को दर्शाता है। सवाल यह भी उठता है कि क्या इन अधिकारियों के कामकाज की समीक्षा इतनी जल्दी हो गई? या यह सब आंतरिक दबावों और दबंग राजनीति का परिणाम है?
चंद्रपुर पुलिस विभाग में तबादलों का यह सिलसिला सिर्फ प्रशासनिक बदलाव नहीं, बल्कि यह नीति, पारदर्शिता और व्यवस्था पर गहराते सवालों का संकेत है। जब तक इन निर्णयों की प्रामाणिकता और कारण सार्वजनिक नहीं किए जाते, तब तक पुलिस की छवि पर बुरा असर पड़ना तय है।
