जब इच्छाशक्ति मजबूत हो, तो कोई भी बाधा रास्ता नहीं रोक सकती। चंद्रपुर जिले के गोंडपिपरी गांव के अश्विन मेश्राम ने इस कथन को सच कर दिखाया। दिव्यांगता और आर्थिक संघर्षों के बावजूद, अश्विन ने बारहवीं की परीक्षा 50% अंकों के साथ उत्तीर्ण कर अपने जैसे कई युवाओं को नई राह दिखाई है।
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संघर्ष की कहानी: पिता के साथ काम करते हुए पढ़ाई जारी रखी
अश्विन न बोल सकता है, न ही चल सकता है, लेकिन उसके सपनों की उड़ान को कोई सीमा नहीं रोक सकी। उसके पिता सदाशिव मेश्राम गाड़ी चलाकर घर चलाते हैं। पारिवारिक हालातों के कारण अश्विन ने सातवीं कक्षा से ही हाथगाड़ी से लोगों का सामान पहुंचाने का काम शुरू किया। दिनभर का श्रम और फिर स्कूल—यह दिनचर्या उसकी जिंदगी बन चुकी थी।
शिक्षकों ने दिया प्रोत्साहन, आश्विन ने बढ़ाया कदम
एक समय ऐसा भी आया जब अश्विन ने पढ़ाई छोड़ने का मन बना लिया। लेकिन दीपस्तंभ अभ्यासिका के संचालक निखिल खोब्रागड़े ने उसके भीतर की क्षमता को पहचाना और उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। खोब्रागड़े की प्रेरणा और मार्गदर्शन ने अश्विन को दोबारा किताबों से जोड़ दिया। जनता विद्यालय की कला शाखा में प्रवेश लेकर अश्विन ने बारहवीं की पढ़ाई शुरू की। काम की व्यस्तता के बावजूद उसने पढ़ाई नहीं छोड़ी। परीक्षा के नतीजे वाले दिन भी वह अपने काम में जुटा था, जब फोन आया कि वह पास हो चुका है। यह खबर उसके लिए किसी सपने के सच होने से कम नहीं थी।
गांव का अभिमान बना अश्विन
गांव के जिन लोगों ने अश्विन को रोज़ सामान ढोते देखा था, आज वही लोग उसकी मेहनत और लगन के कायल हो चुके हैं। गांव के हर कोने से उसके लिए शुभकामनाएं और बधाइयों का सिलसिला चल पड़ा है।
अब और मेहनत करूँगा, आगे पढ़ाई जारी रखूँगा
“मैंने सातवीं कक्षा से काम करते हुए पढ़ाई की। बीच में पढ़ाई से मन हट गया था, लेकिन दीपस्तंभ अभ्यासिका के निखिल सर ने मुझे फिर से रास्ता दिखाया। अब बारहवीं पास कर ली है। आगे भी पढ़ाई जारी रखूंगा, पूरे जोश और उम्मीद के साथ।”
“कामगार हूँ मैं, तड़पती तलवार हूँ…”
मराठी कवि नारायण सुर्वे की ये पंक्तियाँ आज सदाशिव मेश्राम के बेटे आश्विन पर सटीक बैठती हैं। दिव्यांग होने के बावजूद, उसने हार नहीं मानी और न केवल अपने परिवार का पेट पाला, बल्कि बारहवीं की परीक्षा भी सफलतापूर्वक पास की। आश्विन की यह सफलता हर उस युवा के लिए प्रेरणा है, जो मुश्किल हालात में हार मान लेता है। उसने साबित कर दिया कि “कामगार ही नहीं, वह तड़पती तलवार है, जो हर चुनौती को काटकर आगे बढ़ सकती है!”
“एकटा आलो नाही, युगाचीही साथ आहे…”
नारायण सुर्वे की ये पंक्तियाँ आश्विन के संघर्ष को एक नया अर्थ देती हैं। वह अकेला नहीं है, बल्कि उसके साथ पूरा युग है, जो उसकी मेहनत और सफलता का गवाह है।
अश्विन की कहानी यह सिखाती है कि परिस्थिति चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हो, अगर इरादे मजबूत हों तो सफलता निश्चित है। उसने न केवल अपनी शिक्षा की राह आसान की, बल्कि समाज को भी यह संदेश दिया कि मेहनत और आत्मविश्वास से हर लक्ष्य संभव है।