स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार केंद्र सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। यह फैसला सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जा रहा है। इस निर्णय से वर्षों से उपेक्षित और वंचित समाजघटक अब योजनाओं के केंद्र में आ सकेंगे।
इस ऐतिहासिक निर्णय की नींव उस समय पड़ी थी जब चंद्रपुर से लोकप्रिय दिवंगत सांसद बाळू धानोरकर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी पहली ही मुलाकात में पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने की ठोस मांग की थी। धानोरकर ने यह मुद्दा बार-बार संसद में उठाया और मीडिया के माध्यम से भी इस पर जोर दिया। वे मानते थे कि जब तक समाज के हर वर्ग की वास्तविक स्थिति का आंकलन नहीं होगा, तब तक शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक योजनाएं प्रभावी नहीं बन सकेंगी।
बाळू धानोरकर का यह मुद्दा केवल एक मांग नहीं, बल्कि सामाजिक समता और न्याय की लड़ाई का आधार था। आज जब केंद्र सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर लिया है, तो यह निर्णय उनके अथक प्रयासों को सच्ची श्रद्धांजलि माना जा रहा है।
लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने भी इस मुद्दे को समय-समय पर संसद में बड़ी दृढ़ता से उठाया। उनकी दूरदृष्टि और कांग्रेस पार्टी के लगातार दबाव के कारण केंद्र सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा। कांग्रेस नेताओं ने कहा है कि यह फैसला केवल पार्टी की जीत नहीं, बल्कि देश के वंचित, पिछड़े और मेहनतकश वर्गों की दशकों पुरानी मांग की जीत है।
बाळू धानोरकर के बाद उनकी पत्नी और वर्तमान सांसद प्रतिभा धानोरकर ने भी इस मांग को मजबूती से आगे बढ़ाया। लोकसभा में उन्होंने जातिगत जनगणना की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा, “यह जनगणना वंचित, पिछड़े और उपेक्षित समाजों के लिए योजनाओं का सटीक नियोजन करने हेतु अत्यंत आवश्यक है। यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।”
जातिगत जनगणना का यह फैसला नीति-निर्धारण की पारदर्शिता बढ़ाने, संसाधनों के न्यायसंगत वितरण और सामाजिक असमानताओं को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। यह निर्णय भविष्य के भारत के लिए एक नया रास्ता खोलेगा जहाँ हर वर्ग की गिनती भी होगी और गिनती में उनकी भागीदारी भी सुनिश्चित होगी।
यह कदम केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का आरंभ है – जिसमें वर्षों से अनसुनी की गई आवाज़ें अब देश के नीति निर्माण में सुनी जाएंगी।
