इरई नदी—जिसे कभी जीवनदायिनी कहा जाता था—आज लहूलुहान है। उसके सीने में गहरे जख्म हैं, जो रेत माफिया के लोभ और प्रशासन की खामोशी से बने हैं। इस बार इन जख्मों को उजागर करने का साहस दिखाया है इरई नदी प्रहरी, भूगोल के प्रख्यात प्राध्यापक और पर्यावरण चेतना के प्रतीक डॉ. योगेश दुधपचारे ने।
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डॉ. दुधपचारे ने हाल ही में अपने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से जो खुलासे किए हैं, वह न केवल रेत माफिया की दरिंदगी को उजागर करते हैं, बल्कि शासन और प्रशासन की मिलीभगत पर भी सीधा सवाल उठाते हैं। उन्होंने कुछ ऐसे चित्र सार्वजनिक किए हैं, जो दर्शाते हैं कि किस निर्ममता से नदी की गोद से रेत लूटी जा रही है। यह नंगी सच्चाई अब और छुपाई नहीं जा सकती।
विडंबना यह है कि एक ओर राज्य सरकार और जिले के पालकमंत्री डॉ. अशोक उईके इरई नदी के गहराईकरण हेतु करोड़ों की योजनाओं का ढिंढोरा पीट रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उसी नदी को रेत के नाम पर चुपचाप छलनी किया जा रहा है। यह प्रशासन की दोहरी मानसिकता और जनभावनाओं के साथ खुला धोखा नहीं तो और क्या है?
सरकारी आंखें बंद या जानबूझकर अंधी?
रेत माफियाओं ने इरई नदी के तटों पर खुलेआम अवैध गड्ढे खोदकर उच्च गुणवत्ता की रेत निकाली है। नदी तट तक अवैध रास्ते बना लिए गए हैं। करोड़ों के राजस्व की हानि, पर्यावरण की तबाही और प्रशासन की चुप्पी—यह त्रिकोण ही वर्तमान हालात का सबसे भयावह चित्र प्रस्तुत करता है।
प्रश्न उठता है: क्या खनन विभाग, राजस्व अधिकारी, पुलिस और स्थानीय प्रशासन को इस पर जानकारी नहीं थी? अगर थी, तो कार्रवाई क्यों नहीं हुई? और अगर नहीं थी, तो उनकी योग्यता और संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े होते हैं।
डॉ. दुधपचारे: एक अकेली आवाज, लेकिन गूंज बड़ी है
डॉ. योगेश दुधपचारे की फेसबुक पोस्ट सिर्फ एक सामाजिक मीडिया अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि यह एक पर्यावरणीय आंदोलन की चिंगारी है। यह आवाज उस खामोशी को तोड़ने का प्रयास है जो वर्षों से रेत माफियाओं और भ्रष्ट अधिकारियों की सांठगांठ में दबा दी गई थी। इन तस्वीरों और तथ्यों के आधार पर अब जिला प्रशासन को अपने गिरेबान में झांकने की आवश्यकता है। क्या विकास योजनाएं केवल फाइलों और उद्घाटन समारोहों तक सीमित रह गई हैं? क्या ‘पर्यावरण संरक्षण’ महज भाषणों का एक सस्ता जुमला बनकर रह गया है?
अब नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी
यह चेतावनी का समय है। शासन और प्रशासन दोनों को तत्काल प्रभाव से संज्ञान लेना होगा। जिन अधिकारियों की मिलीभगत से यह तस्करी हुई है, उन्हें बेनकाब कर कठोरतम कार्रवाई की जानी चाहिए। साथ ही, नदी पुनर्जीवन और संरक्षण के लिए एक पारदर्शी, जवाबदेह और दीर्घकालिक योजना बनाई जानी चाहिए।
यदि अब भी हमारी नदियों की दुर्दशा पर मौन रहा गया, तो वह दिन दूर नहीं जब इरई जैसी नदियाँ केवल भूगोल की किताबों और पुरानी तस्वीरों में ही बचेंगी। तब न विकास बचेगा, न पर्यावरण – और न ही हमारी नैतिकता।
“रेत के ढेरों में न्याय को दफन मत होने दीजिए। अगर नदी की कराह सुनाई देती है, तो अब आवाज उठाने का वक्त है – क्योंकि चुप रहना अब अपराध से कम नहीं।”