मराठी अस्मिता के दबाव में झुकी सरकार: फडणवीस कैबिनेट ने ‘थ्री लैंग्वेज पॉलिसी’ का आदेश वापस लिया, नई समिति गठित
मराठी अस्मिता बनाम भाषा नीति: महायुति की रणनीति या जनभावना की जीत?
महाराष्ट्र में भाषा को लेकर एक बार फिर सियासी हलचल तेज हो गई है। राज्य सरकार द्वारा ‘थ्री लैंग्वेज पॉलिसी’ को लेकर लिए गए फैसले को फिलहाल टाल दिया गया है। विपक्ष और मराठी समर्थक संगठनों के बढ़ते विरोध के बीच सीएम देवेंद्र फडणवीस ने यह बड़ा एलान करते हुए कहा कि अब इस नीति पर अमल से पहले एक समिति की सिफारिशें ली जाएंगी। यह फैसला ऐसे समय में आया है जब 5 जुलाई को इस नीति के खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन होने वाला था और ठाकरे बंधुओं से लेकर विभिन्न संगठनों ने इसे मराठी अस्मिता पर हमला बताया था।
क्या है थ्री लैंग्वेज पॉलिसी विवाद?
राज्य सरकार ने 16 अप्रैल और 17 जून 2024 को आदेश जारी करते हुए कक्षा 1 से छात्रों को मराठी और अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी भी अनिवार्य रूप से पढ़ाने की घोषणा की थी। यह निर्णय राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तहत लिया गया था, जिसमें तीन भाषाओं को पढ़ाने का फॉर्मूला शामिल है। लेकिन महाराष्ट्र में इस पर तुरंत विवाद खड़ा हो गया। विरोधियों का आरोप था कि यह “हिंदी थोपने” की कोशिश है और मराठी भाषा और संस्कृति को हाशिए पर डालने का प्रयास।
राजनीतिक दबाव में आया फैसला?
महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव नजदीक हैं। ऐसे में मराठी अस्मिता का मुद्दा राजनीतिक रूप से संवेदनशील बन चुका है। जानकारों का मानना है कि यह फैसला महायुति सरकार के लिए संभावित राजनीतिक नुकसान से बचने का एक रणनीतिक कदम है। सरकार नहीं चाहती कि विपक्ष इस मुद्दे पर जनता के बीच नाराजगी भुनाकर लाभ उठाए।
नई समिति का गठन और उसके मायने
राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि पूर्व कुलपति और शिक्षाविद डॉ. नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जाएगी जो थ्री लैंग्वेज पॉलिसी पर पुनर्विचार करेगी। डॉ. जाधव योजना आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं और शिक्षा जगत में उन्हें एक प्रबुद्ध विचारक माना जाता है। सीएम फडणवीस ने स्पष्ट किया कि समिति की रिपोर्ट आने तक थ्री लैंग्वेज पॉलिसी से संबंधित सभी सरकारी आदेश (GR) रद्द माने जाएंगे।
विपक्ष का सरकार पर वार
राज्य सरकार के यू-टर्न को विपक्ष अपनी जीत बता रहा है। शिवसेना (उद्धव गुट), कांग्रेस और एनसीपी ने पहले ही इसे जनता पर हिंदी थोपने की कोशिश करार दिया था। ठाकरे बंधु खासतौर पर इस मुद्दे पर आक्रामक थे। अब जब सरकार ने पॉलिसी पर रोक लगा दी है, विपक्ष इसे जनदबाव और ‘मराठी गौरव’ की जीत कह रहा है।
यह फैसला केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, बल्कि मराठी अस्मिता बनाम राष्ट्रीय भाषा की बहस का केंद्र बन चुका है। आने वाले चुनावों को देखते हुए सरकार का यह कदम राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ. जाधव समिति की सिफारिशें क्या होंगी और क्या वे सरकार को जनभावना और नीति के बीच संतुलन साधने में मदद करेंगी या विवाद को और गहराएंगी।
