चंद्रपुर की राजनीति में भाजपा के दो प्रमुख चेहरे – 🔍सुधीर मुनगंटीवार और 🔍किशोर जोरगेवार – इन दिनों आमने-सामने हैं। यह संघर्ष अब केवल मतभेदों की सीमा तक नहीं रहा, बल्कि ‘अतिवितुष्ट’ की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है। दोनों नेताओं की राजनीतिक वितुष्टता अब चरम पर पहुंच गई है और पार्टी के भीतर यह संघर्ष अब सड़कों, बसों और यात्राओं तक आ चुका है, जिससे भाजपा की आंतरिक एकता पर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं।
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गुटबाजी की जड़ें कहां हैं?
सुधीर मुनगंटीवार, जो राज्य सरकार में कई बार मंत्री रह चुके हैं और🔍चंद्रपुर में भाजपा का एक पुराना और प्रभावशाली चेहरा माने जाते हैं, वहीं किशोर जोरगेवार क्षेत्र में तेजी से उभरते हुए नेता हैं। सूत्रों के अनुसार, यह गुटबाजी नई नहीं है – लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान दोनों के बीच की रस्साकशी और वर्चस्व की लड़ाई ने इसे जन्म दिया।
लोकसभा चुनाव में मुनगंटीवार की हार ने उनकी पकड़ को कमजोर किया। जोरगेवार की विधानसभाई ताकत बढ़ी, जिससे वे अब अपने राजनीतिक निर्णयों में स्वतंत्र होते गए और दोनों के बीच की रस्साकशी और वर्चस्व की लड़ाई देखने को मिल रहा है।
ज्ञात हो पडोली के 🔍ट्राफिक सिगनल का लोकार्पण हो या 🔍छावा फिल्म को लेकर भी दोनों नेताओ के बीच सियासत देखने को मिली।
बस लोकार्पण बना ‘बस’ बहाना
राज्य परिवहन महामंडळ द्वारा चंद्रपुर परिवहन विभाग को मिलीं 10 नई बसों में से 5 बसों के लोकार्पण कार्यक्रम ने दोनों नेताओं के बीच की दरार को सार्वजनिक मंच पर उघाड़कर रख दिया। जहां मुनगंटीवार ने कार्यकर्ताओं के साथ बसस्थानक परिसर में जाकर बसों का उद्घाटन किया, वहीं जोरगेवार ने पलटवार करते हुए उन्हीं में से एक नई बस को महाकाली मंदिर परिसर बुलवाकर उसका ‘नवशासकीय’ लोकार्पण कर डाला और नई बस का लोकार्पण के बाद बस में कार्यकर्ताओं संग यात्रा भी की।
यह केवल एक सरकारी कार्यक्रम नहीं था – यह था शक्ति प्रदर्शन का खुला मंच। अफसर भी दोनों कार्यक्रमों में मजबूरी में उपस्थित रहे, जिससे सरकारी तंत्र भी असमंजस में पड़ गया।
महाकाली यात्रा बनी ‘राजनीतिक रणभूमि’
🔍महाकाली यात्रा महोत्सव के आयोजन के बहाने दोनों नेताओं ने सरकारी अधिकारियों के साथ अलग-अलग बैठकें लेकर यह जताने की कोशिश की कि चंद्रपुर का नेतृत्व किसके हाथ में है। स्थिति यह हो गई है कि अब आम अधिकारी भी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि “किस बस की सीट पकड़नी है।”
अब यह दिखाता है कि यात्राओं, मंदिरों और धार्मिक आयोजनों तक को अब सत्ता संघर्ष का औजार बनाया जा रहा है।
‘संस्कृति’ की दो परिभाषाएं: एक विश्रामगृह, दो स्वागत
सांस्कृतिक कार्यमंत्री 🔍आशीष शेलार के हालिया दौरे के दौरान जो नज़ारा देखने को मिला, वह चंद्रपुर भाजपा में दो ध्रुवों की ‘संस्कृतिक’ टकराव को दर्शाता है। एक ही विश्रामगृह में, दो अलग-अलग कमरों में दोनों नेताओं के गुटों ने अलग-अलग स्वागत की व्यवस्था की—एक ही पार्टी, एक ही मंत्री, लेकिन दो अलग रस्में।
यह दृश्य केवल राजनीतिक विडंबना नहीं, बल्कि भाजपा के अंदर गहराते ध्रुवीकरण का प्रतीक है।
प्रशासन और कार्यकर्ता असमंजस में
अब स्थिति ऐसी बन गई है कि अफसरों को समझ नहीं आता – किस नेता की बात मानी जाए। वहीं, पार्टी कार्यकर्ता भी गुटों में बंटते जा रहे हैं। कोई मुनगंटीवार का वफादार है तो कोई जोरगेवार के साथ। इससे भाजपा के सांगठनिक ढांचे को नुकसान पहुंच रहा है।
सवाल उठता है: पार्टी क्या करेगी?
भाजपा के लिए यह स्थिति चिंताजनक है। जब पार्टी हाईकमान अंदरूनी एकता की बात करता है, तब चंद्रपुर जैसे जिले में ऐसे खुलेआम शक्ति-प्रदर्शन पार्टी की छवि पर आघात करते हैं। सवाल यह भी है कि क्या शीर्ष नेतृत्व इस गुटबाजी पर लगाम लगाएगा, या फिर यह संघर्ष आने वाले चुनावों में बीजेपी के लिए सिरदर्द बनेगा?
भाजपा के लिए चेतावनी की घंटी
भाजपा के लिए यह आंतरिक संघर्ष एक गंभीर संकट का संकेत है। अगर पार्टी नेतृत्व जल्द हस्तक्षेप नहीं करता, तो यह गुटबाजी आगामी चुनावों में भारी नुकसान पहुँचा सकती है। चंद्रपुर जैसे संवेदनशील जिले में, जहां विपक्ष भी ताक में बैठा है, इस प्रकार की रार भाजपा की जमीनी पकड़ को ढीली कर सकती है।
🔍चंद्रपुर की राजनीति में यह ‘दो विधायकों की जंग’ अब सिर्फ सत्ता या प्रभाव की लड़ाई नहीं रह गई है, यह अब ‘अहम’ की जंग बन चुकी है। जनता यह तमाशा देख रही है, लेकिन पार्टी को तय करना है कि यह लड़ाई कितनी दूर तक जाने दी जाएगी।