घुग्घूस की राजनीतिक फिज़ा इन दिनों एक नए ट्रेंड से गरमाई हुई है – दूसरे खेमों से आए कार्यकर्ताओं को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने का ‘उदार’ प्रयास। स्थानीय विधायक की निधि से नगर परिषद में स्वीकृत लगभग 50 लाख रुपये के विकास कार्यों का बंटवारा, इस नए सियासी समीकरण की ताज़ातरीन बानगी है। दिलचस्प बात यह है कि यह ‘सौगात’ उन नए-नवेले नेताओं को दस-दस लाख रुपये के काम के रूप में मिली है, जिनके पास ठेकेदारी के लिए आवश्यक कागजात तक नहीं हैं! चर्चा तो यह भी है कि इन नेताओं को ठेकेदारों के मुनाफे में से ‘कमीशन’ का हिस्सा मिलेगा।
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अब यहाँ एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। लाखों रुपये के इन ठेकों में, नेताओं को मिलने वाले इस ‘कमीशन’ के चक्कर में कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि ठेकेदार घटिया दर्जे का काम करके अपनी जेबें भरेंगे? जनता के पैसे का क्या होगा?विकास कार्यों की गुणवत्ता कौन सुनिश्चित करेगा? यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। अतीत के पन्ने पलटें तो ग्राम पंचायत के दिनों में भी अपने समर्थकों को साधने के लिए विभिन्न विभागों के ठेके बांटे गए थे। फिर जैसे-जैसे इन स्थानीय नेताओं का कद बढ़ा, उन्होंने क्षेत्र के उद्योगों में अपना दबदबा कायम कर लिया और अपने करीबियों के नाम पर व्यवसाय शुरू कर अपनी आर्थिक तरक्की की राहें खोल लीं। पार्टी के भीतर एकतरफा आदेशों का दौर चला, जिससे पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ताओं में नाराजगी पनपने लगी। इसी असंतोष का नतीजा था कि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद शहर के कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपने राजनीतिक गुरु का साथ छोड़कर नया खेमा चुन लिया।
खेमा बदलते ही इन नेताओं और कार्यकर्ताओं की किस्मत तो चमक गई, लेकिन इस नए ‘व्यवस्था’ के खिलाफ भी विरोध के स्वर उठने लगे हैं।
सबसे हैरतअंगेज पहलू यह है कि जिन दो ठेकेदारों को आज यह 50 लाख रुपये का ठेका मिला है, वे कल तक शहर के पुराने ‘आकाओं’ के छत्रछाया में खूब फले-फूले थे। खेमा बदला, नेताओं और कार्यकर्ताओं की आर्थिक स्थिति बदलने की नींव रखी गई, लेकिन ठेकेदार वही पुराने! आखिर बदला क्या, यह समझना वाकई मुश्किल है।
शहर में दबी जुबान से यह भी चर्चा है कि पहले कुछ लोग अकेले ही ‘माल’ समेटते थे, लेकिन अब एक नया ट्रेंड शुरू हुआ है – ‘सबको मिलेगा, थोड़ा इंतजार करो!’ पहले भी नेताओं के ‘आशीर्वाद’ से उन्हीं ठेकेदारों को काम मिलता था, और आज भी मिल रहा है। सीधी बात कहें तो, यह ‘डैमेज कंट्रोल’ का एक सुनियोजित प्रयास लग रहा है।
अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि क्या नगर परिषद के अधिकारी इन दो ठेकेदारों द्वारा किए जा रहे कार्यों पर पैनी नजर रखेंगे, या फिर वे भी अपना ‘कमीशन’ लेकर चुप्पी साध लेंगे? क्या विकास कार्यों की गुणवत्ता से समझौता किया जाएगा, सिर्फ इसलिए कि कुछ नेताओं की आर्थिक स्थिति सुधर सके?
घुग्घूस की राजनीति में यह ‘पाला बदलने’ का खेल, कार्यकर्ताओं की आर्थिक उन्नति के नाम पर, कहीं विकास की बलि तो नहीं चढ़ा रहा? यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब आने वाला वक्त ही देगा, लेकिन फिलहाल तो हवा में भ्रष्टाचार और गुणवत्ताहीन कार्यों की आशंका की बू तैर रही है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इस ‘नए ट्रेंड’ का अंत क्या होता है और क्या घुग्घूस की जनता इस सियासी ‘खेल’ को चुपचाप देखती रहेगी?
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