जिले के औद्योगिक नगरी घुग्घूस में वर्ष 1994 में स्थापित स्टील प्लांट केवल औद्योगिक विकास का प्रतीक नहीं रहा, बल्कि इसने क्षेत्र की राजनीति को भी गहराई से प्रभावित किया है। तीन दशकों में, इस प्लांट ने न केवल अर्थव्यवस्था को मजबूती दी बल्कि कई राजनीतिक दलों के नेताओं को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। इस उद्योग से जुड़े फैसलों, नीतियों और हितों ने स्थानीय राजनीति की दिशा और दशा दोनों को बदला है।
राजनीति का मूल उद्देश्य समाज सेवा और लोककल्याण था, लेकिन समय के साथ यह एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है। पहले नेता समाज के उत्थान और जनहित के लिए कार्य करते थे, लेकिन अब कई नेता इसे अपने निजी स्वार्थ और लाभ का माध्यम बना चुके हैं। हाल के वर्षों में देखा गया है कि राजनीति और उद्योगों के बीच गठजोड़ बढ़ता जा रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि जनता का हित पीछे छूटता जा रहा है और निजी स्वार्थ हावी हो रहा है।
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राजनीति: सेवा या व्यापार?
एक समय था जब राजनीतिक दल और उनके नेता समाज की भलाई के लिए कार्य करते थे। वे जनता की समस्याओं को दूर करने और विकास के नए मार्ग खोलने के लिए प्रयासरत रहते थे। लेकिन अब राजनीति का परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका है। आज राजनीति में व्यवसायियों और उद्योगपतियों का दखल बढ़ गया है। कई बड़े उद्योगपति या तो खुद राजनीति में आ गए हैं या फिर राजनीतिक नेताओं के माध्यम से अपने हितों की रक्षा कर रहे हैं। इससे राजनीति का मूल उद्देश्य कहीं खो गया है। अब राजनीति केवल सत्ता, धन और प्रभाव बढ़ाने का जरिया बन गई है।
उद्योग और राजनीति का गठजोड़: नया खेल?
हाल ही में कुछ घटनाएं यह दर्शाती हैं कि राजनीति अब केवल जनहित तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह स्वार्थ का खेल बन गई है। कई नेता उन उद्योगों के खिलाफ आवाज उठाते हैं, जो उनके हितों के अनुरूप नहीं चलते। लेकिन जब उन्हें व्यक्तिगत लाभ मिलने लगता है, तो वे अपने रुख को बदल लेते हैं।
ज्ञात हो, क्षेत्र के एक बड़े औद्योगिक कंपनी के आवास परिसर में जारी निर्माण कार्यों को लेकर कई स्थानीय और बाहरी नेता सक्रिय हो गए हैं। ये नेता कंपनी पर दबाव बनाने के लिए अपने करीबी मीडिया मित्रों का उपयोग की और तरह-तरह के प्रश्न उठाकर माहौल को अपने पक्ष में मोड़ने का प्रयास की। किसी औद्योगिक कंपनी के विस्तार कार्यों के दौरान स्थानीय नेता विरोध जताते हैं। वे जनहित के नाम पर धरने-प्रदर्शन करते हैं, कंपनी पर दबाव बनाते हैं और उसे गलत साबित करने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब यही नेता किसी सौदेबाजी में शामिल हो जाते हैं और निजी लाभ मिलने की संभावना दिखती है, तो वे अचानक समर्थन में आ जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि इनका मकसद केवल जनता के हित की रक्षा करना नहीं, बल्कि अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करना होता है।
दबाव की राजनीति और कंपनी के अधिकारी
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे अधिक प्रभाव कंपनी के पूर्व वरिष्ठ अधिकारी पर पड़ा, जो इन नेताओं के दबाव के आगे झुके नहीं। बताया जाता है कि उन पर मानसिक दबाव डालने के लिए कई गुप्त बैठकें की गईं, लेकिन उन्होंने किसी भी प्रकार का समझौता करने से इनकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि कंपनी के विरोध में कई मुद्दे उछाले गए और अंततः उन्हें स्थानांतरित कर दिया गया। उनके जाने के बाद, नए अधिकारियों के कार्यभार संभालते ही वही नेता फिर से सक्रिय हो गए और अब अपने मूल उद्देश्य को साधने में लगे हुए हैं।
किसानों की ज़मीन पर नजर
कंपनी के विस्तार के लिए किसानों की ज़मीन की आवश्यकता है, और यही इन नेताओं के लिए नया अवसर बन गया है। अब ये नेता किसानों से कम कीमत पर ज़मीन बेचने पर मजबूर कर, उसे ऊंचे दामों पर कंपनी को बेचने के लिए नए “व्यवसाय” में उतर चुके हैं। यह न केवल किसानों के साथ धोखा है बल्कि पूरे औद्योगिक क्षेत्र को भी अव्यवस्थित करने की साजिश है।
नेताओं की दोहरी भूमिका: विरोध से समर्थन तक
राजनीति में एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है – पहले किसी मुद्दे का पुरजोर विरोध करना और फिर उसी का समर्थन करना। जब तक कोई संगठन या उद्योग नेता के निजी हितों को नुकसान पहुंचाता है, तब तक वह विरोध में रहता है। लेकिन जब उसे व्यक्तिगत लाभ मिलने की संभावना दिखती है, तो वह अपना रुख बदल लेता है।
इस तरह की राजनीति जनता को भ्रमित करती है और असल मुद्दों से ध्यान भटकाती है। जनता समझ नहीं पाती कि उसका असली हित किसके साथ है और किसे समर्थन देना चाहिए।
“धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं” – राजनीति का नया मंत्र?
फिल्म रईस का प्रसिद्ध डायलॉग – “कोई भी धंधा छोटा नहीं होता और धंधे से बड़ा कोई धर्म नहीं होता” – आज की राजनीति पर पूरी तरह फिट बैठता है। राजनीति और उद्योगों का ऐसा घालमेल हो चुका है कि अब इन्हें अलग कर पाना मुश्किल होता जा रहा है।
व्यापारिक लाभ के लिए राजनीति का उपयोग किया जा रहा है और राजनीतिक ताकत को आर्थिक फायदे में बदला जा रहा है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, क्योंकि इससे लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है और जनता के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। राजनीति और उद्योग का यह गठजोड़ समाज के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुका है। जहां राजनीति का मुख्य उद्देश्य जनकल्याण होना चाहिए, वहीं अब यह निजी स्वार्थों की पूर्ति का माध्यम बन गई है।
जनता को अब यह तय करना होगा कि वह किस तरह के नेतृत्व को समर्थन देना चाहती है – क्या वह ऐसे नेताओं को चुनेगी जो केवल स्वार्थ की राजनीति करते हैं, या फिर उन नेताओं को समर्थन देगी जो वास्तव में जनहित के लिए कार्य कर रहे हैं?
समय आ गया है कि जनता अपनी जागरूकता बढ़ाए और अपने नेताओं को उनके कार्यों के आधार पर परखे। तभी राजनीति अपने असली स्वरूप में लौट पाएगी और समाज के उत्थान का माध्यम बन सकेगी।