सत्यशोधक परंपरा की पुनर्स्थापना, यह विवाह नहीं, एक आंदोलन था – सादगी का, पर्यावरण का और सामाजिक विवेक का।
“शादी की रीत नहीं, सोच बदलने की पहल थी यह…”
जब देश के कोने-कोने में शादियाँ दिखावे, रोशनी, डीजे और दहेज की अंधी दौड़ में बदल रही हैं, ऐसे में चंद्रपुर जिले के सुसा गांव में हुआ यह अनोखा विवाह समाज को एक नई दिशा दिखाने वाला बन गया। यह विवाह सिर्फ़ श्रीकांत एकुडे और अंजली गरमडे के जीवन का संगम नहीं था, यह भविष्य के लिए एक मजबूत वैचारिक संदेश भी था।
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खर्च नहीं, रचना का माध्यम बना विवाह
न नाते-रिश्तेदारों को महंगे तोहफे लाने की बाध्यता थी, न ही वरमाला के नीचे चमकते स्टेज। श्रीकांत ने शादी में होने वाले अनावश्यक खर्च को रोककर दो खेतों में रस्ते — लगभग 2000 फीट लंबे — बनवाए, जिससे गांव के किसानों को हर मौसम में खेतों तक पहुंचना संभव हो सके।
फ्रिज नहीं, फलदार पेड़ मिले उपहार में
श्रीकांत और अंजली ने सभी नाते-रिश्तेदारों से अपील की कि उन्हें घरेलू उपकरण नहीं, बल्कि फलों और औषधीय पेड़ों का उपहार दें। इस सृजनात्मक सोच को समाज का भरपूर समर्थन मिला और उन्हें 90 से अधिक फलों के पेड़ भेंट में प्राप्त हुए — जिनमें लिची, वॉटर एप्पल, चकोत्रा, चारोळी, बेल, मोह, स्टारफ्रूट आदि शामिल हैं।
एक सोच जो विरासत बन जाएगी
इन पेड़ों से बनने वाला फ्रूट फॉरेस्ट केवल पर्यावरण को ही नहीं, बल्कि गांव के बच्चों को भी जैव विविधता का पाठ पढ़ाएगा। साथ ही, जंगलों और पारंपरिक फसलों की उपेक्षा के दौर में यह प्रयोग एक वैकल्पिक कृषि मॉडल भी प्रस्तुत करता है।
सत्यशोधक परंपरा का आधुनिक अवतार
यह विवाह महात्मा फुले की सत्यशोधक परंपरा का आदर्श उदाहरण है — संवाद, सहमति और सादगी पर आधारित। न कोई पंडित, न रीति-रिवाज का बोझ; केवल सच्चे विचारों और सामाजिक उत्तरदायित्व का समर्पण।
“हमने सोचा कि पहले समाज को कुछ दें, फिर शादी करें…”
— श्रीकांत एकुडे > “शादी जीवन का उत्सव है, लेकिन इसका अर्थ दिखावा नहीं होना चाहिए। जब सरकार शेतकऱ्यांचा विचार करत नाही, तेव्हा आपणच करायला हवं. म्हणून मी रस्ते आणि फळझाडांवर भर दिला. माझ्या मित्र आणि नातेवाईकांनी दिलेल्या प्रतिसादाने माझा विश्वास दृढ झाला आहे.”
यह विवाह महज़ निजी उत्सव नहीं, एक जनजागरण था। एक ऐसी पहल जो समाज के ढांचे को बदल सकती है — बस जरूरत है, और लोग ऐसे कदम उठाएं।