ताडोबा-अंधारी व्याघ्र प्रकल्प सिर्फ एक पर्यटन केंद्र नहीं, बल्कि चंद्रपुर जिले की शान और पहचान है। यहां की प्राकृतिक संपदा और बाघों की मौजूदगी ने इस जिले को अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर जगह दिलाई। लेकिन जिस धरोहर के कारण यह गौरव प्राप्त हुआ, उसी धरोहर के द्वार आज स्थानीय नागरिकों के लिए लगभग बंद हो चुके हैं।
आर्थिक अन्याय की भावना
साधारण किसान, मज़दूर या स्थानीय मध्यमवर्गीय परिवार के लिए 8,000 से 12,000 रुपये का शुल्क चुकाना नामुमकिन है। यह ठीक वैसा है जैसे अपने ही घर के आंगन में कदम रखने पर प्रवेश-शुल्क चुकाना पड़े। जब एक ओर स्थानीय जनता वन्यजीव संघर्ष का भार झेल रही है, वहीं दूसरी ओर उन्हें वाघ दर्शन के लिए मोटी रकम चुकानी पड़ रही है। यह स्थिति स्वाभाविक रूप से “आर्थिक भेदभाव” का भाव जगाती है।
राजनीतिक आयाम
सांसद प्रतिभा धानोरकर ने जो आक्रामक रुख अपनाया है, उसका असर स्थानीय राजनीति पर गहरा पड़ सकता है। यदि सरकार ने तुरंत राहत नहीं दी तो धानोरकर जनता की नज़रों में “स्वदेशी अधिकारों के लिए लड़ने वाला नेता” बनेंगी। दूसरी ओर, यदि आंदोलन उग्र हुआ और पर्यटन प्रभावित हुआ तो राज्य सरकार और वन विभाग पर जवाबदेही का दबाव बढ़ेगा।
पर्यटन बनाम स्थानीय हक़
सरकार का तर्क साफ है कि पर्यटन शुल्क से होने वाली आय से ही संरक्षण और सुविधाएं संभव होती हैं। परंतु सवाल यह है कि क्या संरक्षण का बोझ केवल पर्यटकों पर ही डाला जाना चाहिए? और क्या स्थानीय जनता को इस प्रक्रिया से बाहर रखा जाना न्यायोचित है? समाधान यही है कि “डिफरेंशियल प्राइसिंग” लागू हो—बाहरी पर्यटकों से मौजूदा शुल्क, जबकि स्थानीय नागरिकों को रियायती दर।
मानव-वन्यजीव संघर्ष और आर्थिक अन्याय
चंद्रपुर जिला पहले से ही मानव-वन्यजीव संघर्ष का सबसे बड़ा शिकार है। ग्रामीणों की जानें बाघों के हमलों में जाती हैं, उनकी फसलें और मवेशी नष्ट होते हैं। लेकिन जब वही स्थानीय लोग बाघ को सुरक्षित रूप से देखने के लिए ताडोबा जाते हैं तो उन्हें हजारों रुपये शुल्क के बोझ तले दबना पड़ता है। यह दोहरा अन्याय स्थानीय जनता अब और सहन करने के मूड में नहीं है।
वर्तमान प्रवेश शुल्क (प्रति जिप्सी, एक बार):
ज़ोन दिन शुल्क
कोर सोम–शुक्र ₹ 8,600
कोर शनि–रवि ₹ 12,600
बफर सोम–शुक्र ₹ 7,300
बफर शनि–रवि ₹ 10,300
सांसद की लोकहितकारी मांग
सांसद प्रतिभा धानोरकर ने स्पष्ट किया है कि स्थानीय नागरिकों से केवल ₹ 2,700 वाहन शुल्क और ₹ 600 गाइड शुल्क ही लिया जाए। उनका कहना है—
“ताडोबा की वजह से चंद्रपुर की पहचान बनी है। मगर आज ताडोबा के दरवाज़े स्थानीय नागरिकों के लिए बंद-से हो गए हैं। हम यह अन्याय कदापि स्वीकार नहीं करेंगे।”
ताडोबा विवाद दरअसल विकास और जनहित की टकराहट का प्रतीक है। अगर सरकार ने संवेदनशीलता दिखाते हुए स्थानीयों को राहत दी तो यह मुद्दा शांत हो सकता है। लेकिन अगर अनदेखी हुई, तो 1 अक्टूबर से ताडोबा का प्रवेश द्वार सचमुच आंदोलन की चपेट में आ सकता है।
यह संघर्ष केवल “जिप्सी प्रवेश शुल्क” का नहीं, बल्कि स्थानीय अस्मिता और हक़ की लड़ाई का प्रतीक बन चुका है।
