चार दशक पुराने विवाद का निपटारा संभव, सुप्रीम कोर्ट से लेकर जनआंदोलन तक का संघर्ष अब रंग लाने को तैयार
तेलंगाना सीमा विवाद में दशकों से उलझे महाराष्ट्र के जिवती तालुका की 14 मराठी भाषी ग्राम पंचायतें अब जल्द ही महाराष्ट्र में विधिवत रूप से शामिल होने जा रही हैं। इस ऐतिहासिक निर्णय की पुष्टि मंगलवार, 14 जुलाई को विधानभवन में आयोजित उच्चस्तरीय बैठक में की गई, जिसकी अध्यक्षता राज्य के महसूल मंत्री चंद्रशेखर बावनकुले ने की।
बैठक में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के स्पष्ट निर्देशों के हवाले से बावनकुले ने बताया कि “ग्रामवासियों की भावना और न्यायालय के निर्णयों को ध्यान में रखते हुए अंतिम निर्णय जल्द ही लिया जाएगा।” बैठक में राजुरा के विधायक देवराव भोंगले चंद्रपूर जिल्हाधिकारी विनय गौड़ा और संबंधित 14 गांवों के ग्रामीण प्रतिनिधि मौजूद थे।
चार दशक पुराना सीमाविवाद – एक संक्षिप्त इतिहास:
- 1978 में महाराष्ट्र और तत्कालीन आंध्र प्रदेश के बीच सीमाएं तय की गई थीं।
- 1980 से सीमा विवाद की शुरुआत हुई।
- 1983 में दोनों राज्यों ने एक समिति गठित की, जिसमें स्थानीय नागरिकों ने स्पष्ट रूप से महाराष्ट्र के पक्ष में रहने की इच्छा जताई।
- 1990 में आंध्र प्रदेश सरकार ने 14 गांवों को अपने अधिकार में लेने का आदेश जारी किया, जिसका ग्रामीणों ने तीव्र विरोध किया।
- 1993 में महाराष्ट्र सरकार ने उस निर्णय पर स्थगन आदेश जारी किया।
- मामला हैदराबाद हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।
- 17 जुलाई 1997 को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ (न्यायमूर्ति ए.एच. अहमदी, झाकीर अहमद, कृपाल सिंह) ने स्पष्ट किया कि विवादित 14 गांव महाराष्ट्र के हैं।
विवादित ग्राम सूची
- परमडोली
- मुकदमगुडा
- कोठा (बुज)
- महाराजगुडा
- अंतापूर
- येसापूर
- लेंडीगुडा
- पळसगुडा
- परमडोली तांडा
- लेंडीजाळा
- शंकरलोधी
- पद्मावती
- इंदिरानगर
- भोलापठार
तेलंगाना का ताजा रवैया और प्रशासनिक हस्तक्षेप:
राज्य विभाजन के बाद, तेलंगाना सरकार इन गांवों में सुविधाएं देकर अपना दावा स्थापित करने की कोशिश कर रही थी। लेकिन अब महाराष्ट्र सरकार की स्पष्ट नीति के कारण इस विवाद के स्थायी समाधान की राह खुल गई है।
महत्वपूर्ण निर्णय और घोषणाएं:
राजूरा सर्वे क्रमांक 1 से 8 के अंतर्गत आनेवाली वर्ग-दो की जमीनों को वर्ग-एक में निःशुल्क रूपांतरण का निर्णय लिया गया।
जिवती तालुका के कोतवाल पदों की भरती का प्रस्ताव भी मंजूर किया गया है।
यह मामला केवल प्रशासनिक सीमा का नहीं, बल्कि भाषा, पहचान और अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक रहा है। दशकों की अदालती लड़ाई, आंदोलन, और जनभावनाओं के सम्मान का परिणाम है कि ये गांव अब अपने मूल राज्य में लौटते दिखाई दे रहे हैं। यह महाराष्ट्र सरकार की निर्णायक नेतृत्व क्षमता और स्थानीय लोगों की एकता का प्रमाण है।
