अप्रैल माह की शुरुआत होते ही गर्मी ने अपना प्रचंड रूप दिखाना शुरू कर दिया है। तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि के चलते जलस्रोतों—जैसे नदी, नाले, तालाब और जलाशयों—का जलस्तर लगातार घटता जा रहा है। इस गिरते जलस्तर ने 🔍चंद्रपुर जिले के प्रमुख शहरों में पीने के पानी की समस्या को विकराल रूप दे दिया है। ग्रामीण अंचलों में तो स्थिति और भी दयनीय हो गई है, जहां लोगों को टँकारों से दूर जाकर पानी लाना पड़ रहा है।
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जल संकट की मुख्य वजहें
जलसंकट का यह संकट केवल मौसम की मार नहीं, बल्कि मानवीय लापरवाही का परिणाम भी है। जहां एक ओर जल संरक्षण की योजनाएं कागजों तक सिमट कर रह गई हैं, वहीं दूसरी ओर 🔍नदियों से हो रहे अवैध रेत उत्खनन ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है। विशेषज्ञों की माने तो रेत नदियों के जलस्तर को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। रेत की परतें पानी को संचित रखती हैं और भूजल स्तर को संतुलित करने में सहायक होती हैं। लेकिन मुनाफे की होड़ में नदियों से अवैध रूप से रेत निकाली जा रही है, जिससे नदियां सूखने की कगार पर पहुंच गई हैं।
उद्योगों और पर्यावरण पर प्रभाव
जल संकट केवल आम नागरिकों तक सीमित नहीं है। जिले के कई छोटे-बड़े उद्योग भी इस स्थिति से प्रभावित हो रहे हैं। पानी की कमी से उत्पादन प्रभावित हो रहा है और आने वाले समय में यह आर्थिक मोर्चे पर भी बड़ा संकट बन सकता है। वहीं, जल की कमी से वनस्पतियां और जीव-जंतु भी प्रभावित हो रहे हैं। पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ रहा है, जिसका प्रभाव हमें भविष्य में और गहराई से देखने को मिलेगा।
प्रशासन की भूमिका और आवश्यक कदम
इस संकट पर यदि समय रहते प्रशासन ने ठोस कदम नहीं उठाए, तो आने वाले दिनों में हालात और भयावह हो सकते हैं। जरूरी है कि:
1. अवैध रेत उत्खनन पर सख्त रोक लगाई जाए और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो।
2. जल संरक्षण योजनाओं को प्राथमिकता दी जाए और उन्हें ज़मीन पर लागू किया जाए।
3. वाटर हार्वेस्टिंग को अनिवार्य किया जाए, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में।
4. जनजागरूकता अभियान चलाकर लोगों को पानी की बर्बादी रोकने के लिए प्रेरित किया जाए।
जल जीवन का आधार है। यदि हमने समय रहते चेतना नहीं दिखाई, तो वह दिन दूर नहीं जब पीने के पानी के लिए लोग त्राहि-त्राहि करेंगे। यह केवल सरकार या प्रशासन की नहीं, हम सभी की जिम्मेदारी है कि जल स्रोतों की रक्षा करें और पानी की हर बूंद की कीमत समझें। वरना आने वाली पीढ़ियों को हम केवल सूखी नदियां और जल संकट की कहानियां ही सौंप पाएंगे।