“न्याय दो या जेल दो” की हुंकार के साथ आदिवासियों का खदान में ठिय्या आंदोलन, चुनखड़ी परिवहन ठप
आदिवासी कोलाम समाज का माणिकगढ़ (अल्ट्राटेक) सिमेंट कंपनी के खिलाफ चला आ रहा संघर्ष अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच गया है। पिछले 12 वर्षों से जमीन के मुआवज़े और रोजगार की मांग कर रहे आदिवासियों का धैर्य अब जवाब दे चुका है। गुरुवार, 29 मई को हापर खदान में चुनखड़ी उत्खनन बंद कराते हुए आदिवासियों ने जोरदार आंदोलन शुरू किया। खदान क्षेत्र में परिवहन पूरी तरह ठप हो चुका है और क्षेत्र में तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है। पावसाल की दस्तक के बीच आंदोलन और भड़कने की आशंका जताई जा रही है।
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12 वर्षों का संघर्ष, फिर भी न्याय नहीं
2012 से अब तक आदिवासी समुदाय लगातार सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधियों से अपनी बात कहता आ रहा है। कोरपना तहसील के कुसुम्बी गांव के 18 आदिवासी परिवारों की जमीन बिना मुआवज़ा दिए और पुनर्वास के बगैर कंपनी को सौंप दी गई। इसके विरोध में कई बार बैठकें हुईं, परंतु कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया।
बनावटी दस्तावेज़ों से जमीन हथियाने का आरोप
1984 में माणिकगढ़ सिमेंट को कुल 643.62 हेक्टेयर भूमि लीज पर दी गई थी। इनमें से कुछ भाग वन विभाग को सौंपा गया, लेकिन शेष 493 हेक्टेयर पर कथित रूप से बिना सहमति के खुदाई शुरू कर दी गई।
इतना ही नहीं, कंपनी पर नकली मंज़ूरी दस्तावेजों के आधार पर नोकारी व बॉम्बेझरी शिवार की 30 हेक्टेयर जमीन खरीदने का आरोप है। बताया जा रहा है कि इस ज़मीन को “सिलिंग अंतर्गत” दिखाकर और नगर नियोजन की अनुमति के बिना ही निर्माण की मंज़ूरी ले ली गई।
प्रशासन की निष्क्रियता और कंपनी का अत्याचार
आदिवासी संगठनों का आरोप है कि कंपनी द्वारा रास्ते बंद करना, पानी के स्रोत खत्म करना, श्मशान भूमि पर अतिक्रमण और अवैध उत्खनन जैसी शिकायतों के बावजूद प्रशासन ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। उल्टे पुलिस का इस्तेमाल कर आंदोलनकारियों को डराया-धमकाया जा रहा है।
“जमीन चाहिए या जेल” – ठोस और निर्णायक रुख
अब तक 8 से 9 आंदोलनकारियों पर विभिन्न मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। इससे आदिवासी समुदाय, जो अपनी ही ज़मीन के लिए लड़ रहा है, आज अपराधियों जैसी स्थिति में है।
29 मई को आदिवासियों ने हापर खदान में सीधा जाकर चुनखड़ी की ट्रांसपोर्टिंग रोक दी। “हमारी ज़मीन लौटाओ, मुआवज़ा दो, रोजगार दो – या हमें जेल में डाल दो” कहते हुए उन्होंने ठिय्या आंदोलन की शुरुआत की।
प्रमुख आंदोलनकारी और मुख्य माँगें
आंदोलन में शामिल प्रमुख चेहरे: भिमा मडावी, रामदास मंगाम, अरुण उद्दे, चिन्नु मुक्का, आत्राम, यशोदा सिडाम, लक्ष्मी पेंदोर, ताराबाई कुडमेथे, लक्ष्मी मेश्राम, जंगु पेंदोर आदि।
प्रमुख मांगें:
जमीन का पुनः सर्वेक्षण और सीमांकन
उचित मुआवज़ा और पुनर्वास
प्रत्येक प्रभावित परिवार को स्थायी नौकरी
दर्ज आपराधिक मुकदमों की वापसी
कंपनी पर उच्चस्तरीय जांच
जनसत्याग्रह संगठन की चेतावनी
जनसत्याग्रह अध्यक्ष आबिद अली ने सरकार को चेतावनी दी: “जल-जंगल-जमीन पर अधिकार देने की बातें सिर्फ भाषणों में होती हैं, असल में आदिवासियों की ज़मीनें पूंजीपतियों को दे दी जाती हैं। अब आदिवासी समुदाय का धैर्य समाप्त हो चुका है। अगर अब भी सरकार ने न्याय नहीं दिया, तो परिणाम बेहद गंभीर हो सकते हैं।”
यह आंदोलन केवल जमीन या नौकरी की लड़ाई नहीं, बल्कि दशकों से जारी शोषण बनाम अधिकार की गाथा है। सरकार की निष्क्रियता और कॉरपोरेट की मनमानी मिलकर एक बार फिर आदिवासियों को उनके ही घर में बेघर कर रही है। सवाल ये है कि क्या ‘विकास’ के नाम पर आदिवासियों की कुर्बानी देना ही हमारी नीति बन चुकी है?